Natasha

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राजा की रानी

हाँ, कहा था कि इसके बाद मेरे बुरे दिनों की रात आयी, दोनों ऑंखों की सारी रोशनी को कलंक ने बुझा दिया। पर वही क्या मनुष्य का समस्त परिचय है? उस अखण्ड ग्लानि के घने आवरण के बाहर उसका क्या और कुछ भी बाकी नहीं है?


“है। अव्याहत अपराध के बीच-बीच उसे मैंने बार-बार देखा है। अगर ऐसा न होता, विगत दिनों का राक्षस यदि मेरे समस्त अनागत मंगल को नि:शेष ग्रास कर लेता, तो तुम फिर मुझे कैसे मिलते? मेरे ही हाथों में लाकर फिर तुम्हें कौन सौंप जाता?

“मुझसे तुम चार-पाँच वर्ष बड़े हो, तो भी तुम्हें जो अच्छा लगता है वह मुझे शोभा नहीं देता। मैं बंगाली घर की लड़की हूँ, जीवन के सत्ताईस वर्ष पार कर चुकने के बाद यौवन का दावा और नहीं करती। मुझे तुम गलत मत समझना- चाहे जितनी ही अधम क्यों न होऊँ। अगर वह बात तुम्हारे मन में क्षणभर के लिए घुणाक्षर न्याय से भी आये, तो इससे बढ़कर शर्म की बात मेरे लिए और कोई नहीं है। बंकू जिन्दा रहे, वह बड़ा हो गया है। उसकी बहू आ गयी है- तुम्हारी शादी के बाद उन लोगों के सामने मैं किस मुँह से निकलूँगी? यह अपमान कैसे सहूँगी?

“यदि तुम कभी बीमार पड़ो तो सेवा कौन करेगा-पूँटू? और मैं तुम्हारे मकान

के बाहर से ही नौकर के मुँह से खबर पूँछकर लौट आऊँगी? इसके बाद भी जीवित रहने के लिए कहते हो?

“शायद प्रश्न करोगे, तो क्या हमेशा ही ऐसा नि:संग जीवन काटूँ? पर प्रश्न चाहे कुछ भी हो, उसका जवाब देने की जिम्मेदारी मेरे ऊपर नहीं है, तुम्हारे ऊपर है। फिर भी अगर तुम बिल्कुनल ही कुछ न सोच सको- बुद्धि का इतना क्षय हो गया हो तो मैं उधार दे सकती हूँ, वह लौटानी नहीं पड़ेगी- लेकिन देखो, ऋण को कहीं अस्वीकार मत कर देना!

“तुम सोचते हो कि गुरुदेव ने मुझे मुक्ति का मन्त्र दिया है, शास्त्रों ने पथ का संधान दिया है, सुनन्दा ने धर्म की प्रवृत्ति दी है, और तुमने दिया है सिर्फ भार-बोझा। ऐसे ही अन्धे हो तुम लोग!

“पूछती हूँ, तुम्हें तो मैंने तेईस वर्ष की उम्र में पा लिया था, पर इसके पहले ये सब कहाँ थे? तुम इतना ज्यादा सोच सकते हो और यह नहीं सोच सकते?”

“मुझे आशा थी कि एक दिन मेरे सब पापों का अन्त हो जायेगा, मैं निष्पाप हो जाऊँगी। यह लोभ क्यों है, जानते हो? स्वर्ग के लिए नहीं- वह मुझे नहीं चाहिए। मेरी कामना है कि मरने के बाद फिर आकर जन्म ले सकूँ। इसके मानी समझ सकते हो?

“सोचा था कि पानी की धारा में कीचड़ मिल गयी है- मुझे उसे निर्मल करना ही पड़ेगा। पर आज अगर उसका मूल स्रोत ही सूख जाय, तो पड़ा रह जायेगा मेरा जप-तप, पूजा-अर्चना, रह जायेगी सुनन्दा, पड़े रहेंगे मेरे गुरुदेव।

स्वेच्छा से मैं मरना नहीं चाहती। पर मेरे अपमान करने का ही कूट कौशल अगर तुमने रचा हो तो इस विचार को छोड़ दो। अगर तुम विष दोगे तो मैं पी लूँगी, पर उसे न ले सकूँगी। मुझे जानते हो, इसलिए यह बता दिया कि जो सूर्य अस्त होगा उसके पुन: उदय की अपेक्षा में बैठे रहने का वक्त अब मेरे पास नहीं है। इति।

राजलक्ष्मी।”

छुटकारा मिला। सुनिश्चित कठोर अनुशासन की चरम-लिपि भेजकर उसने एक ओर से मुझे बिल्कुाल निश्चिन्त कर दिया। इस जीवन में उस विषय में सोचने के लिए अब और कुछ नहीं रहा। पर नि:संशयपूर्वक यह तो मालूम हुआ कि क्या नहीं कर सकूँगा। पर इसके बाद मुझे क्या करना होगा, इस बारे में राजलक्ष्मी बिल्कुाल चुप है। शायद उपदेशों से भरी हुई एक चिट्ठी और किसी दिन लिखेगी, अथवा सशरीर मुझे ही तलब करेगी। लेकिन इस वक्त जो व्यवस्था हो गयी है वह बहुत ही सुन्दर है। इधर बाबा-महोदय सम्भवत: कल सुबह ही आकर हाजिर होंगे। उन्हें भरोसा दे आया हूँ कि फिक्र करने की जरूरत नहीं, अनुमति मिलने में कोई विघ्न न होगा। पर जो कुछ आ पहुँचा, वह निर्विघ्न अनुमति ही तो है। रतन नाई के हाथ उसने कपड़े और मौर मुकुट नहीं भेजा, यही बहुत है।

दूसरी ओर देश के मकान में विवाह का आयोजन निश्चय ही अग्रसर हो रहा होगा। पूँटू के आत्मीय स्वजनों में से कोई कोई शायद आकर हाजिर हो रहे होंगे, तथा प्राप्त वयस्क अपराधी लड़की को इतने दिनों तक लांछना और भर्त्सना के बदले अब कुछ आदर मिल रहा होगा। यह जानता हूँ कि बाबा से क्या कहूँगा। पर वह बात कैसे कहूँगा, यही समझ में नहीं आता। उनके निर्मम तकाजों, लज्जाहीन युक्तियों और वकालत के बारे में मन ही मन सोचकर एक ओर हृदय जितना तिक्त हो उठा, दूसरी ओर व्यर्थ प्रत्यावर्तन की निराशा से चिढ़े हुए परिवार वालों के उस अभागी लड़की को और भी ज्यादा उत्पीड़ित करने की बात सोचते ही हृदय को उतनी ही व्यथा पहुँची। पर उपाय क्या है? बिछौने पर लेटा हुआ बहुत रात तक जागता रहा। पूँटू की बात भूलने में देर नहीं लगी, पर गंगामाटी की याद बराबर आने लगी। जन-विरल उस क्षुद्र गाँव की स्मृति कभी मिट नहीं सकती। इस जीवन की गंगा-जमुना की धारा एक दिन यहीं आकर मिली थी, और थोड़े अरसे तक पास-पास प्रवाहित हो एक दिन यहीं फिर अलग हो गयी थी। एक साथ रहने के वे क्षणस्थायी दिन श्रद्धा से गहरे, स्नेह से मधुर, आनन्द से उज्ज्वल और उनकी ही तरह नि:शब्द वेदना से अत्यधिक स्तब्ध हैं। विच्छेद के दिन भी हमने प्रवंचना की निन्दा से एक दूसरे को कलंक नहीं लगाया, नफे-नुकसान के फिजूल के वाद-विवाद से गंगामाटी के शान्त गृह को हम धूमाच्छन्न करके नहीं आया। वहाँ के सब लोग यही जानते हैं कि फिर एक दिन हम लौट आयँगे, फिर हँसी-खुशी शुरू होगी और फिर आरम्भ होगी भूस्वामिनी की दीन-दुखियों की सेवा और सत्कार। पर वह सम्भावना तो खत्म हो गयी है-प्रभात की विकसित मल्लिका दिन के अन्त का हुक्म मानकर चुप हो गयी है- यह बात वे स्वप्न में भी नहीं सोचेंगे।

ऑंखों में नींद नहीं है, निद्राहीन रजनी प्रात:काल की ओर जितनी आगे बढ़ने लगी, उतनी ही यह इच्छा होने लगी कि यह रात खत्म ही न हो! सिर्फ यही एक चिन्ता मानो मुझे मोहाच्छन्न करके रखे रही।

बीती हुई कहानी घूम-फिरकर मन में आ जाती है। वीरभूमि‍ जिले की वह तुच्छ कुटिया मन पर भूत की तरह चढ़ जाती है, हमेशा काम-काज में फँसी हुई राजलक्ष्मी के दोनों स्निग्ध हाथ ऑंखों के सामने साफ नजर आते हैं, इस जीवन में परितृप्ति का ऐसा आस्वादन कभी किया है, यह याद नहीं आता।

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